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प्र वो॑ वा॒युं र॑थ॒युजं॑ कृणुध्वं॒ प्र दे॒वं विप्रं॑ पनि॒तार॑म॒र्कैः। इ॒षु॒ध्यव॑ ऋत॒सापः॒ पुरं॑धी॒र्वस्वी॑र्नो॒ अत्र॒ पत्नी॒रा धि॒ये धुः॑ ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vo vāyuṁ rathayujaṁ kṛṇudhvam pra devaṁ vipram panitāram arkaiḥ | iṣudhyava ṛtasāpaḥ puraṁdhīr vasvīr no atra patnīr ā dhiye dhuḥ ||

पद पाठ

प्र। वः॒। वा॒युम्। र॒थ॒ऽयुजम्॑। कृ॒णु॒ध्व॒म्। प्र। दे॒वम्। विप्रम्॑। प॒नि॒तार॑म्। अ॒र्कैः। इ॒षु॒ध्यवः॑ ऋ॒त॒ऽसापः॑। पुर॑म्ऽधीः। वस्वीः॑। नः॒। अत्र॑। पत्नीः॑। आ। धि॒ये। धु॒रिति॑ धुः ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:41» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अत्र) इस संसार में (इषुध्यवः) बाणों के द्वारा युद्ध करने वा (ऋतसापः) सत्य सम्बन्ध रखनेवाले विद्वान् जन (वः) आप लोगों के लिये (रथयुजम्) वाहन से युक्त (वायुम्) वेगवाले वायु को (धुः) धारण करें वा आप लोगों और (नः) हम लोगों के लिये (पत्नीः) स्त्रियों के सदृश वर्त्तमानों को और (धिये) बुद्धि के लिये (वस्वीः) बहुत पदार्थों से युक्त (पुरन्धीः) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (आ) सब प्रकार धारण करें उनके संग से वेगयुक्त वाहन से युक्त को (प्र, कृणुध्वम्) अच्छे प्रकार सिद्ध करें (अर्कैः) प्रशंसनीय पदार्थों से (पनितारम्) स्तुति करने और धर्म्म से व्यवहार करनेवाले (विप्रम्) बुद्धिमान् (देवम्) विद्वान् को (प्र) अच्छे प्रकार प्रकट करो ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे पतिव्रता पत्नी पति आदि को सुख देती हैं, वैसे ही वायु के समान वेगयुक्त रथ को और धार्मिक विद्वानों को धारण कर सब को सुखयुक्त करो ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! येऽत्र इषुध्यव ऋतसापो विद्वांसो वो रथयुजं वायुं धुर्युष्मभ्यं नोऽस्मभ्यं पत्नीरिव धिये वस्वीः पुरन्धीरा धुस्तत्सङ्गेन वायुं रथयुजं प्र कृणुध्वमर्कैः पनितारं विप्रं देवं प्र कृणुध्वम् ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वः) युष्मभ्यम् (वायुम्) वेगवन्तम् (रथयुजम्) रथेन युक्तम् (कृणुध्वम्) (प्र) (देवम्) विद्वांसम् (विप्रम्) मेधाविनम् (पनितारम्) स्तावकं धर्म्मेण व्यवहर्त्तारम् (अर्कैः) अर्चनीयैः पदार्थैः (इषुध्यवः) य इषुभिर्युध्यन्ते (ऋतसापः) सत्यसम्बन्धाः (पुरन्धीः) द्यावापृथिव्यौ। पुरन्धी इति द्यावापृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०३.३)। (वस्वीः) बहुपदार्थयुक्ताः (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) अस्मिञ्जगति (पत्नीः) पत्नीवद्वर्त्तमानाः (आ) (धिये) प्रज्ञायै (धुः) दध्युः ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! भवन्तो यथा पतिव्रता पत्न्यः पत्यादीन् सुखयन्ति तथैव वायुवद्वेगयुक्तं रथं धार्मिकान् विदुषश्च धृत्वा सर्वान् सुखयेयुः ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी पतिव्रता पत्नी पती इत्यादींना सुख देते. तसे वायुप्रमाणे वेगवान रथ व धार्मिक विद्वान यांना धारण करून सर्वांना सुखी करा. ॥ ६ ॥